logo

परिचय हज़रत पीर सय्यद गुलाम हुसैन शाह जीलानी

बानी जामिअ़ा सिद्दीक़या सोजा शरीफ बाड़मेर राजस्थान

विलादत : हिन्दोस्तान में सूबा गुजरात का मग़रिबी, जज़ीरा-नुमा, साहिली मुख़्तसर हिस्सा ‘‘कछ-भुज’’ है जिसकी ‘‘मिन्दरा’’ तहसील का एक छोटा सा क़स्बा लूनी शरीफ है जो दरयाए हिंद से मुत्तसिल है। 25 मोहर्रुमल-हराम 1379 हि. में आं हुजूर मद्द ज़िल्लहुल अ़ाली की विलादते बा सआदत इसी गांव हुई।

घुट्टी : शैखुल मशाईख हज़रत पीर सय्यद हाजी महमूद शाह जीलानी संस्थापक जामिआ अकबरीया लूनी शरीफ़ गुजरात ने तहनीक (कोई चीज़ चबा कर मुंह में देना) फरमाई और आशीर्वाद देने के लिए घुट्टी पिलाई

वालिद माजीद : क़ुत्बे थर हज़रत पीर सय्यद क़ुत्बे आलम शाह जीलानी बिन सय्यद अब्दुश्शकूर शाह आप के वालिद (पिता ) हैं जो तक़्वा परहेज़गारी (धर्म निष्ठा) और मानवता की परोपकारी में अपना उदाहरण आप थे

खुशा मस्जिदो मदरसा खानकाहे के दरवे बुवद कील व काल मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम

प्रशिक्षक,संस्थापक फैज़े अकबरी हज़रत अल्हाज पीर सय्यद महमूद शाह जीलानी को क़ुत्बे थर हज़रत पीर सय्यद क़ुत्बे आलम शाह जीलानी ने आखिरी दौरे पर रवाना होते समय अपने प्यारे बेटे को यह कह कर सुपुर्द कर दिया कि ये मेरी अमानत आप के हवाले करता हूं इस की तालीम (शिक्षा) और तर्बीयत (प्रशिक्षण) आप ही को करनी है इसलिए आपने तालीम और तर्बीयत का हक़ अदा फरमा दीया और पीर खाना मुलाकातियार शरीफ़ मख्दूमे दौरां हज़रत शाह मोहम्मद इस्हाक़ उर्फ पागारा बादशाह की हाज़री में पहुंचा कर फैज़याब करवाया अपने कायम किए हुए जामिआ अकबरीया से आलिम होने के बाद वहीं जामिआ में ही पढ़ाने के लिए मुक़र्रर फरमा दिया वालिद माजीद (पिता) हज़रत पीर सय्यद क़ुत्बे आलम शाह जीलानी के ख़ास ख़ादिम (विशेष सेवक) अब्दुस्सुब्हान के साथ वालिद माजिद (पिता) के मुरीदीन में दौरे के लिए भेजा अपने दौरों में शामिल फरमाकर परवान चढ़ाया अपने आखिरी दौरे में तमाम सालिकीन (तपस्या करने वाले) से फ़रमाया कि अब बाकी सुलुक के सबक़ आप लोगों को पीर सय्यद ग़ुलाम हुसैन शाह जीलानी से समाप्त करने हैं इंशाअल्लाह विकर्मी संवंत 25 , 26, का अंकाल अत्यंत ही भयानक और दुखद था अमेरिका की लाल ज्वार बहुत ही कठिनाई से उपलब्ध होती थी जामिआ अकबरीया पर 90000 का कर्ज़ चढ़ गया था प्रशिक्षक महोदय ने गहने गिरवी रख कर जामिआ को विधिगत तरीक़े से चालू रखा, लूनी शरीफ़ के सादात के वंश में से सिर्फ आप जामिआ में बाकी रहे उस समय हज़रत अल्लामा सरदार अहमद साहब के शागिर्द हज़रत अल्लामा अल्हाज अब्दूल हक़ डेम्बाई फाज़िल मज़हरे इस्लाम बरेली शरीफ़ ने निवेदन किया कि, किब्ला! अब जामिआ में पीराने इज़ाम में से केवल सय्यद ग़ुलाम हुसैन शाह बाकी रहे हैं अगर आप अनुमति दें तो इनको अपने साथ ले जा कर अपने गांव डेम्बा में पढ़ाऊं वर्ना ऐसे ही जामिआ कर्ज़ दार होगा, उनके प्रश्न के उत्तर में उन्होने फ़रमाया यह जामिआ क़यामत तक चलता रहेगा, सय्यद ग़ुलाम हुसैन शाह जीलानी की अंगुली पकड़कर उस्ताज़ को सौंप कर फ़रमाया, मौलाना साहब, आप केवल आलिम बना कर दे दें ये अकेला सब को काफी होगा इंशा अल्लाह एक विद्वान गौष का कथन बिल्कुल ही सत्य साबित हुआ जिसे आज दुनिया अपनी आंखों से देख रही है

बकर्मी सन 25 26 का क़ह़त ज़रबुल मस्ल था, अमरीका की सुर्ख़ जो मुश्किल से मयस्सर हुआ करती थी, दारूल उ़लूम फैज़े़े आकबरी पर 90 हजार का क़र्ज़ हो गया था, मुर्बिये मुअ़ज्ज़म ने जे़वरात रहन रखकर मदरसा को कायम रखा। आखिर खानदाने लूनी शरीफ के शाहजादगान में से सिर्फ आं-हुजूर मदरसा में बाक़ी रहे, उस वक़्त उस्ताजे जी-वक़ार अल्लामा अल्हाज अश्शाह अब्दुल हक़ डेमबाई का फाज़िल मज़हरे इस्लाम बरेली शरीफ ने अ़र्ज़ कियाः किबला अब मदरसा में पीराने उज़्जाम में से सिर्फ बापू सय्यद गुलाम हुसैन बाक़ी रहे हैं, इजाज़त हो तो उनको अपने साथ ले जा कर अपने गांव डेम्बा में पढ़ाऊं वरना ख्वाह मख्वाह दारूल उलूम पर क़र्ज़ में इज़ाफा होगा, जवाब में इरशाद फरमाया ये दारूल उलूम ता क़यामत जारी रहेगा, आं-हुजूर को उंगली पकड़ कर उस्ताज़ को सिपुर्द कर के फरमायाः मौलाना साहब! आप सिर्फ उनको आलिम बना कर दे दें ये तन्हा इंशा अल्लाह सबको काफी होंगे, एक गा़ैस का कलाम हर्फ बहर्फ सही हुआ जिसे आज की दुनिया अपनी आँखों से देख रही है।

शिक्षा : आप ने प्राथमिक शिक्षा अपने गांव के विद्यालय में प्राप्त की और इलाहबाद बोर्ड से फाज़िल की परीक्षा दी और अपने गांव की पीरों की मस्जिद में चल रहे मदरसा में ख़लीफा इब्राहीम वाघेर आदि से नाज़रा को पुरा किया 12 रबीउल अव्वल 1386 हिजरी में फाज़िल मज़हरे इस्लाम अल्लामा अल्हाज अब्दुल हक़ मुहद्दिसे आज़म राजस्थान लूनी शरीफ तशरिफ़ लाए और शहशाहे मूलाकातियार क़िब्ला ए आरिफां हज़रत शाह मोहम्मद इस्हाक उर्फ पागारा बादशाह के इशारे पर हाजी महमूद शाह जीलानी ने जामिआ अकबरीया की नीव रखी उसमें अरबी की पहली जमात से आठवीं तक अल्लामा डेम्बाई से संपूर्ण शिक्षा प्राप्त की और 13 रमजानुल मुबारक 1395 हिजरी में फज़ीलत की सनद (सर्टिफिकेट) से नवाज़े गए

तदरीस (शिक्षण) : उस्ताज़ महोदय को हज़रत सय्यद महमूद शाह जीलानी ने आप को आलिम बनाने का उत्तरदायित्व (ज़िम्मेदारी) सौंप रखी थी , दादी मोहतरमा सय्यदा बुसरा बीबी जो रोज़े वाले बादशाह की बहन हैं उन्होने भी उस्ताज़ साहब को कह रखा था की हड्डियां हमारी और चमड़ा आपका मगर आलिम बना कर देना है इसलिए खाने के समय को छोड़ कर बाकी समय अपने उस्ताज़ के साथ गुज़ारते घर पर दादी मां रास्ते में हज़रत पीर महमूद शाह और जामिआ में उस्ताज़ का पहरा और सख़्त (कठिन) निगरानी ने चारों तरफ से घेर लिया था जिसके कारण शिक्षा में गुणवत्ता तबीयत में समय की पाबंदी अच्छी तरह से रच बस गई थी शिक्षा के बीच नाज़रा के बच्चे आपको पढ़ाने के लिए दिए गए उसके बाद उससे ऊपर वाले बच्चे पढ़ाने दिए गए आलिम बनने के बाद बड़ी बड़ी कक्षाओं के बच्चे पढ़ाने के लिए दिए गए उस्ताज़ साहब से मअज़रत (क्षमा) करने पर फ़रमाया हम आप के लिए प्रार्थना (दुआ) करते हैं और चाहते हैं कि हमारी मौजूदगी में आप एक बहुत ही अच्छे शिक्षक (उस्ताज़) हो जाओ , तो आप ने जामिआ अकबरिया के तदरीसी (शिक्षण) तब्लीग़ी (उपदेश) तन्ज़ीमी (संगठनात्मक ) विभागों को संभाला। अपने उस्ताज़ महोदय के सुपुत्र हज़रत अल्लामा अब्दुल बाक़ी साहब से दोस्ती बहुत गहरी थी दिन रात साथ रहते थे पाठ (असबाक) को हल करने में एक दूसरे की मदद करते थे फारसी शेअरों और बैत बाज़ी में साथ रहते यहां तक के उस्ताज़ के इंतकाल 24 रजब शरीफ़ 1401 हिजरी के बाद अल्लामा अब्दुल बाक़ी की सदारत के ज़माने में कंधे से कंधा मिलाकर काम किया अल्लामा अब्दुल बाक़ी के चले जाने के बाद सदारत की कुर्सी को संभाला और अच्छे तरीक़े से बरक़रार रखा सुबह तहज्जुद के वक्त घर से आते और रात को 1:00 बजे सबको सुला कर वापस घर जाते दोपहर को छुट्टी के बाद घर पर खाना खाते और थोड़ी देर दोपहर को आराम करने के बाद ज़ोहर की नमाज़ जामिआ में वापस जाकर जमात के साथ पढ़ते तहज्जुद के वक्त से बच्चों को पढ़ाना शुरू कर देते और लगातार पढ़ाते रहते हेड ऑफिस गेट पर थी , पूरा समय बच्चों पर ख़र्च करते कुछ सुस्त बच्चे होते तो उनको आप खुद पढ़ाते अपने पास शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों को खूब तरक़्क़ी के रास्तों की ओर अग्रसर किया उस समय जो बच्चे आपके पास पढ़े थे उनको आज भी कई समय गुज़र जाने के बाद नहव सर्फ (अरबी ग्रामर) अच्छी तरह याद हैं और दबदबा इतना था विद्यार्थीगण तो क्या शिक्षक भी बग़ैर अनुमति के कुछ भी करने की हिम्मत नहीं करते

शरीयतो तरीक़त (सूफीवाद) की सेवा : आप की तबियत में बुजुर्गों की सोहबत की बरकत से नेकी और परहेज़गारी रची बसी हुई है, वैसे भी आप तबीयत के नेक थे बचपन में लोग आपको चलते फिरते देख कर कहा करते थे के यह बड़े होकर बहुत बड़े बुजुर्ग होंगे बचपन में लूनी शरीफ़ के कुछ लोग हज़रत महमूद शाह जीलानी से अर्ज़ किया करते थे कि हमारे बच्चों को पीर सय्यद ग़ुलाम हुसैन शाह से मुरीद करवाना है वह आपकी अनुमति के बग़ैर मानते नहीं हैं आप उनको आदेश दें इसलिए हज़रत महमूद शाह के आदेश देने पर सबसे पहले चमड़िया वाघेर कौम आपकी मुरीद हुई विद्यार्थीगण को आप तहज्जुद का पाबंद बनाते असर नमाज़ के बाद बच्चों को खेल के बजाय नमाज़ की ट्रेनिंग में लगाते खुद निगरानी रखते सल्फे सालेहीन नाम से एक कमेटी बनाई जिसमें हफ्ता में एक बार उस्ताज़ करीम को नसीहत के लिए शामिल करते नेकी का बीज बोया करते जो दूर भागता उसको डांट कर नर्म बना देते।

तबलीग़ी दौरे :बचपन से राजस्थान के अलग-अलग इलाकों में दौरा शुरू किया कभी एक महीना तो कभी डेढ महीना का दौरा होता जिसमें यात्रा (सफ़र) में शरीक होने वाले पैदल और सवार होते वह ज़माना गाड़ियों का नहीं था लूनी शरीफ़ से ट्रेन या बस से तशरीफ़ लाते लोग अपने ऊंट ले जाते और बस या ट्रेन से उतरते ही ऊंट पर यात्रा करवाते 10, 12 ,15 ऊंट घोड़े यात्रा में साथ रहा करते थे 20 ,25 का क़ाफ़िला एक गांव से दूसरे गांव जाया करता था जिसमें सेवा करने वाले बावर्ची सामान संभालने वाले आपकी सवारी का ऊंट संभालने वाले उसके अलावा सिलसिला नक्शबंदिया का सुलूक का सबक पढ़ने वाले सालिकीन 10-10-15 मंजिलों तक साथ चलते हर रोज़ असर नमाज़ के बाद फ़क़ीर लोग अर्ज़ करते कि ज़िक्र का हल्का की मेहरबानी हो जाए और यह अनुमति और विनती उस हल्का के लिए ज़रूरी कर दिया था इसलिए फ़क़ीरों के निवेदन करने पर रोज़ाना रात की जहां दावत होती मस्जिद में जमात के साथ और अव्वाबीन के बाद घंटा भर हल्का शरीफ़ होता जिसमें कोई साहब नात शरीफ़ या गज़ल शरीफ़ तर्ज़ में पढ़ता बाक़ी लोग अपने-अपने दिल की तरफ़ आकर्षित हो कर इस्मे जलालत (अल्लाह ताला का नाम) के कल्बी (हार्दिक) ज़िक्र के साथ अपने मुर्शिद के दिल से फैज़ तलब करने वाले हो कर मुराकिब होता। फिर जिसने दूसरे समय में जितना ज़िक्रे कल्बी ज़्यादा किया होता उसका असर इस तरह होता कि आप हज़रत उनके दिलों पर निगाह फ़रमाते, कुछ समय बुलन्द (जोर) आवाज़ से अल्लाह अल्लाह की दरबें लगाते जिस से हल्का वालों पर जज़्बा तारी हो जाता और बे इख़्तियार चीखें निकल जाती कुछ ज़मीन से ऊपर होकर ज़मीन पर गिरते आखिर में रिक्कत अंगेज़ दुआ करते अपनी निगाह से ज़ंग से भरे हुए दिलों को पाक और साफ (शुद्ध एवं स्वच्छ) करते आपके ज़िक्र के हल्का में मरे हुए दिल ज़िक्र करने वाले हो जाते मुरब्बी मुकर्रम के फ़क़ीरों को भी सबक़ पढ़ाते जिनको आगे सब़क देना होता तो उनको आगे सबक़ देते दिल के हाल और परिस्थिती (कैफ़ियत) मालूम करते उसे रास्ते की मुश्किलों का हल इरशाद फ़रमाते तहज्जुद के समय सारे फ़क़ीरों और साथियों के साथ उठ जाते पानी गर्म करते सब लोग वुज़ू करके ज़िक्र और मुराकबा और तहज्जुद में लग जाते आप सुबह जल्दी नीम गर्म पानी से नहाते और तवज्जो करने के लिए बैठ जाते यहां तक के फज्र की अज़ान होती उस समय मस्जिद में जाकर जमात के साथ नमाज़ पढ़ते फिर क़ुरान शरीफ़ की तिलावत दलाइलुल ख़ैरात की तिलावत और विरद और वज़ीफा में लग जाते यहां तक के 9:00 बजे फ्री होते जिन लोगों को पानी दम करवाना होता वह ख़िदमत करने वालों को दे देते तिलावत से फ्री होकर होकर दुआ करते और दम करते उस वक्त तक किसी की हिम्मत नहीं होती कि आपका कोई दरवाज़ा खोले

एक बार मुफ़्ती ए आज़म कच्छ से पीर सय्यद हाजी महबूब हसन शाह ने अर्ज़ किया हमारी यह अर्ज़ी आप लगा दो तो फरमाया ज़िला कलेक्टर से कहना हो तो कह दूंगा मगर पीर सय्यद ग़ुलाम हुसैन शाह से मुझ से यह नहीं कहा जाएगा 9:00 बजे दरवाज़ा खुलता गांव के लोग इन्तिज़ार में होते दर्शन करते इल्मी मजलिस और रुहानी बातें शुरू होती लोगों की अर्ज़ियां सुनते उनका हल निकालते दुआ करते उनको तावीज़ देते फिर दोपहर की दावत के लिए दूसरे गांव की तरफ़ रवानगी की तैयारी होती ऊंटों पर पालान कसे जाते मौलूद पढ़ने वाले सिंधी मौलूद पढ़ते हुए आपको दूर तक ले जाते और दुआ लेकर लौटते सामान उठाने वाला ऊंट जिसे मडी कहते हैं वह रात वाली दावत के लिए गांव जाता आप दोपहर वाली दावत के लिए थोड़ा सा सामान साथ ले जाते जबकि बावर्ची को दावत करने वाला रात ही को लेकर मंजिल पर पहुंच गया होता वहां लोग इन्तिज़ार में कोसों दूर सामने आते मौलूद पढ़ते हुए मंजिल पर लाते दूर-दूर तक गालीचे और सिंधी अजरखें और अच्छी-अच्छी गुदड़ियां बिछाई जाती चारपाई पर अच्छा पाक साफ़ नक़्शो निगार वाली गुदड़ी बिछाते जिस पर आप तशरीफ़ रखते सब लोग पैर चूमकर पास में अदब से बैठ जाते हाल चाल ख़ैर व आफियत पूछी जाती गांव अगर नया होता तो तफ़सील से पूछते की कितने घर हैं कौन सी जातियां हैं कितने क़ुरान पाक पढ़ने वाले हैं कितनी मस्जिदे हैं कौन-कौन बुज़ुर्ग आ चुके हैं मस्जिद में नमाज़ी कितने हैं जुम्मा पढ़ने कितने लोग आते हैं आपका मदरसा चालू है कि नहीं कौन मौलाना पढ़ाता है कितने बच्चे आते हैं कितनी बच्चियां आती हैं और कितने क़ुरान पाक पढ़ रहे हैं आगे दारुल उलूम में भेजा है या नहीं बदअक़ीदगी का ज़रूर सुराग लगाते के कोई तुम में बुरे अक़ीदे वाला तो नहीं अगर कहीं होता तो फौरन वहां गांव वालों को उसके बुरे अक़ीदे का ख़तरा महसूस करवाते और सीधा रास्ता बताते मदरसा कायम करके तनख़्वाह उसी मजलिस में इकट्ठी करके पढ़ाने वाला मौलवी भेज देते कहीं सुनते के कोई बच्चा बेख़बरी में बुरे अक़ीदे वाले लोगों के वहां पढ़ रहा है तो उसको मंगवा कर अहले सुन्नत के मदरसा में पहुंचाते अगर मुम्किन होता तो लूनी शरीफ़ के लिए तैयार करते ।दोपहर के खाने के बाद ज़रूर थोड़ी देर आराम फ़रमाते फिर ज़ोहर की नमाज़ पढ़ कर रात वाली दावत के लिए गांव की तैयारी करते लोग उसी मोहब्बत के साथ दूर तक साथ-साथ चलते और ऊंटों के साथ दौड़ते हुए विदाई की जगह तक जाते मौलूद पढ़ने वाले लोग मौलूद पाक पढ़ते हुए साथ चलते आगे जिस गांव में दावत होती वह लोग उसी तरह स्वागत करते नमाज़ मग़रिब के बाद हल्का शरीफ़ होता खाना और ईशा की नमाज़ से फ्री होकर मौलूद पाक या दीनी बातों की महफिल होती अपने साथ एक दो आलिम को ज़रूर नसीहत और हिदायत के लिए साथ रखते जिन पर यह ज़िम्मेदारी होती के वह मुलाक़ात के लिए आने वालों को दुनिया की बातों से बचाते हुए दीनी बातें सुनायें जो तब्लीग़ के दौरे की हालत बयान हुई है ये शुरू दौरे की है

जामिआ सिद्दीक़िया : 1406 हिजरी में कायम हुआ 1406, हिजरी तक आप लूनी शरीफ़ में पढ़ाते थे यहां मौलाना काज़ी साहब अकबरी को पढ़ाने के लिए रखा खुद जब तब्लीग़ करने के लिए आते तो मदरसा की देखभाल करके वालिद माजीद का उर्स सालाना मना कर सूजा शरीफ़ गांव में 8 दिन तक दावतें क़बूल करते फिर आसपास के गांव का आप रुख करते दौरे की हालत वही होती जो ऊपर बयान की गई है एक दो महीने की यात्रा (सफ़र) करके वापस लूनी शरीफ़ चले जाते 1414 हिजरी तक जामिआ सिद्दीक़ीया में 8 साल तक बावर्ची (रसोइया) नहीं रखा गया गांव वाले सुबह और शाम बच्चों के हाथों खाना भेजते जिसको फ़क़र कहा जाता है इस पर असातिज़ा और तल्बा का गुज़ारा होता गांव की मस्जिद में रहते थे 1414 हिजरी में दरगाह पाक पर झोंपड़िया बनाई गई और यहां रहना शुरू किया आप भी उसके बाद कभी 15 दिन या फिर महीना भर रहते फिर लूनी शरीफ़ चले जाते 1419 हिजरी में आपकी बहन सय्यदा शहर बानू आदि 5 व्यक्तियों की एक्सीडेंट से बाड़मेर के पास घटना घटी जिनको आपके परदादा पीर सय्यद अहमद शाह जीलानी के मज़ार के पास बाड़मेर में दफ़्न किया गया उसके बाद ज़्यादातर समय दारुल उलूम में गुज़ारते और दीन की सेवाओं के लिए ज़्यादा समय देना शुरू कर दिया लूनी शरीफ़ और कच्छ के लिए जो आपका पेतृक वतन है हर दो महीने पर सिर्फ 15 दिन के लिए जाते फिर वापस आ जाते यह सिलसिला अभी भी जारी और सारी है

मुर्शिद की बारगाह : मुर्शिद की बारगाह में 11 रज्जब 1402 में शायद मुरब्बी ए मुअज़्ज़म के आदेश (ह़ुक्म) से मुलाकातियार शरीफ़ पहली बार उपस्थिति (हाज़री) थी पहले बड़े पीर साहब मुलाकातियार शरीफ़ तशरीफ़ ले गए जब वापस आए तो हज़रत क़िब्ला पागारा बादशाह मुलाकातियारी के बड़े फ़रज़ंद हज़रत क़िब्ला शाह क़ासिम का जवानी की हालत में इंतकाल हो गया नमाज़े जनाज़ा में शरीक होकर लूनी शरीफ़ तशरीफ़ लाए और मुझे भेजा अर्ज़ किया वहां का क्या तरीक़ा अपनाओं फ़रमाया आपको अल्लाह ने अदब दिया है बताने की कोई आवश्यकता नहीं फिर भी निवेदन किया आपका बताया हुआ तरीक़ा काम देगा इसलिए फ़रमाया हम तो साहिबे सज्जादा बादशाह अलैहिर्रहमह के वालिद हज़रत क़िब्लए आरिफां शाह अब्दुर्रहीम उर्फ कुब्बे धणी बादशाह के फैज़ याफता हैं यह बुज़ुर्ग हमारे मुर्शिद के साहिबज़ादे हैं जब आना होता है तो अनुमति ले लेते हैं मगर आप इनसे बैअत होंगे और पहली बार की हाज़री है इसलिए न खुद इजाज़त लेना न किसी को सिफारशी बनाना जब तक स्वामी (मालिक) खुद अनुमति न दें कहीं मत जाना इसलिए फरमाते हैं में हैदराबाद गया खत्री रहमतुल्ला को साथ लिया तो बोला हज़रत बादशाह तो महीना से ग़म की बिना पर बाहर तशरीफ़ लाते नहीं न कोई महफिल होती है न कोई ज़ियारत का मौक़ा मिलेगा क्या करोगे? मैंने कहा आप चलिए तो सही ज़रूर हज़रत करम फरमाएंगे सब कुछ होगा

फिर दरगाह हज़रत कुब्बे धणी बादशाह और उनके पिता हज़रत शाह सिद्दीकुल्ला के मठ (मज़ार) पर हाज़िर हुए और अर्ज़ किया इंडिया से आए हैं पहली हाज़री है बड़ी उमंग से आए हैं खाली हाथ न जाएं करम करें हज़रत पागारा बादशाह का ग़म दूर हो जाए और मजलिस शुरू हो जाए यह दुआ मांग कर अर्ज़ी भेजी जिस में लिखा कि सय्यद अब्दुश्शकूर शाह का पोता और सय्यद क़ुत्बे आलम शाह उर्फ दादा मियां जीलानी का बेटा हूं सय्यद ग़ुलाम हुसैन नाम है दर्शन की तमन्ना है करम फरमा दें

यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं सम्मानित महसूस करूंगा (गर कबूल उफ्तद ज़हे इज़्ज़ो शर्फ) अर्ज़ी पहुंच गई दूसरे दिन अंदर के कमरे में बुलाया छोटी चारपाई पर लेटे कोहनी को तकिया बनाए हुए थे नज़र पड़ती है बैठने का इशारा फ़रमाया हम हाथ चूम कर बैठ गए हमारी बातें शुरू हुई महात्मा (बुज़ुर्ग) के चेहरे (मुहं) मुबारक पर खुशी का असर ज़ाहिर होने लगा फिर बुज़ुर्ग ने फ़रमाया आप बाहर तशरीफ़ ले चलें हम भी बाहर बैठक में आ रहे हैं जब हमने हुजरे (कमरे) से बाहर पांव रखा तो रुक गए अंदर खादिम ने पीर साहब से पुछा हज़रत यह कौन हैं तो पीर साहब ने उत्तर (जवाब) में फ़रमाया बेटा यह पीर अब्दुलश्शकूर शाह जीलानी लूनी शरीफ़ वालों के पोते हैं जिनकी शान बहुत ऊंची थी अल्हम्दुलिल्लाह दादा की मुकम्मल विशेषताएँ (खूबियां) इन में मौजुद हैं जब हम बाहर आए तो लोग हमें मुबारक बाद और दुआएं देने लगे कि अल्लाह आपका भला करे आपने हज़रत का ग़म दूर कर दिया और हमको मुलाक़ात करने का शर्फ़ मिला।

00 +

छात्र

00 +

कर्मचारी

00 +

सफलता के वर्ष

00 +

पूर्व छात्रों