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पढ़ाने का तरीका

(1) मदनी काइदा आरंभ से अंत तक लिखना और पढ़ना ऐसा हो कि उसके पश्चात कुरआन मजीद आसानी से पढ़ सके और रवानी से पढ़ना मदनी क़ाइदा ही से आ जाए 28, हुरूफे तहज्जी छः लाइनों में हैं, हर रोज़ एक-एक लाइन उस्ताज़ 11 बार खूब अच्छे से पढ़ाए, फिर ग्रुप का हर बच्चा बारी से पूरे ग्रुप को बार-बार उस्ताज़ की निगरानी में बुलंद आवाज से पढ़ाए। दूसरे हफ्त्ते में पुर हुरूफ की मश्क़ और मुश्किल हुरूफ की तसही कराए, 15 दिनों से जाइद पहले सबक़ में वक़्त ना लगाए। दूसरे सबक़ को दो हफ्तों में मअ़ नक़ल पूरा कराए रोजाना दो-दो लाइन ही पढ़ाए लिखाए। तीसरे सबक़ में तीन-तीन लाइनें दी जाएं, और दस लाइनों पर हफ्ता खर्च कर के लिखने पढ़ने में पुख़्ता करा दिया जाए जिससे तीनों हरकतों के बीच फर्क कर सकें। चौथा सबक़ करीबुल मखरज का है, खूब हुरूफ की अदायगी में फर्क कराए, तीन-तीन लाइन रोज़ाना देकर हफ्ता में इस सबक़ को पूरा कराए। पांचवां सबक़ तनवीन की पहचान का है एक दिन में पूरा पढ़ा दे बाकी असबाक़ ऐसे ही हैं कि रोज़ाना एक-एक सबक़ पढ़ा सकता है, यूं बाकी 20 अस्बाक 20 दिनों में पढ़ा ले, इस तरह दो माह दस दिनों में काईद पूरा हो जाएगा। सह-माही टेस्ट पहली मोहर्रम को होंगे, इस मौका पर हर बच्चा मदनी काइदा पूरा कर चुका हो। इंशा अल्लाहिलअ़ज़ीम

(2) दूसरे सह-माही में पारा अ़म्म हिज्जे व रवां मअ़ हिफ्ज़। जिसमें सूर ए अलफील तक एक दिन में एक सूरह हिज्जे व रवां के साथ और दूसरे दिन उसी को हिफ्ज़ कराए। उस के बाद की सूरतों में एक दिन हिज्जे रवां और दूसरे दिन पूरी सूरह देखकर रवानगी के साथ पढ़ाना और तीसरे दिन उसी सूरह को मअ़ मखारिज अज़बर सुनना।

(3) दो पारे सह-माही अव्वल तक और तीन पारे सह-माही दौम तक। कुल 5 पारे मुकम्मल।


जामिआ का संस्था का पाठ्यक्रम और उसके फवाइद

अल्लाह रब्बुल इज्ज़त जल्ला मज्दुहू का करोड़ हा एहसान जिसने जामिआ को बानी ऐसा अता फरमाया जिसकी दूर-अँदेश, हमागीर और गेहरी नजर की दूर-दूर तक मिसाल नहीं मिलती, अ़रबी इदारों के संस्था का पाठ्यक्रम में जुज़वी तरमीम व तबदीली हर जगह पाई जाती है और ज़माने का तक़ाज़ा मलहूज़ रखना जरूरी होता है, हुजूर बानिये जामिअ़ा मद्दजिल्लहुल आली ने जामिआ की इबतिदा से जिन उमूर पर तवज्जो मर्कूज फरमाई और निसाब में तबदीली को जरूरी समझा वो तबदीलियां कई सालों के बाद बड़े-बड़े दानिशवर उलमा ने अपने इदारों में लाज़मी क़रार दीं, माहनामा अशरफिया जून 2008 में मज़मून तंज़ीमुल मदारिस और संस्था का पाठ्यक्रम के तह़त हज़रत अल्लामा मुहम्मद अहमद मिस्बाही मद्दज़िल्लहुल अ़ाली ने जिन तरमीमात का जिक्र किया हुजूर बानिये जामिअ़ा 1427 में ही ये तबदीली जामिआ सिद्दीक़िया के निसाब में कर चुके थे। आगे तंजीमुल मदारिस की चंद दफआत पेश कर रहे हैं फिर जामिआ सिद्दीक़िया का संस्था का पाठ्यक्रम दिया जाएगा जिससे दोनों की यगानगत बखूबी ज़ाहिर व बाहिर हो जाएगी, पहले तंजीमुल मदारिस की इन दफअ़ात को देखें जो खैरूल अज़किया अल्लामा मुहम्मद अहमद मिस्बाही ने ज़िक्र फरमाई हैं। मौसूफे गिरामी उस तंज़ीम के तैयार कर्दा निसाब की खुसूसियात को नम्बर वाइज़ यूं तहरीर फरमाते हैंः

(1) कुरआन तमाम उलूम का सरचश्मा और जुमला अ़क़ाइद व आमाल का माख़ज़ व मसदर है, मगर साबिक़ा निसाब की दस साला मुद्दत में उस की तालीम दस बारा पारे से ज़्यादा ना होती थी, इस निसाब में कोशिश की गई है कि तर्जुमा या तफ्सीर के ज़रिये पूरे कुरआने करीम का इजमाली या क़द्रे तफ्सीली दर्स व मुताला हो जाए।

(2) साबिका निसाब में सिहाहे सित्ता से सिर्फ तीन किताबें सहीह बुखारी, सहीह मुस्लिम और जामेअ़ तिर्मिज़ी ज़ैरे दर्स थी, इस निसाब में बक़या तीन कुतुब सुनन अबू दाऊद, सुनन निसाई और सुनन इब्ने माजा के अबवाब भी शामिल किये गए हैं ताकि तालिबे इल्म कम से कम सिहाहे सित्ता से एक हद तक बिला वास्ता रोशनास हो जाए।

(3) अ़लावा अज़ीं मिश्कातुल मसाबीह़, सिह़ाहे़ सित्ता और इनके अ़लावा मुतअ़द्दिद कुतुबे हदीस के जामेअ़ और नफीस इन्तिखाब पर मुशतमिल है मगर दर्स में सौ सवा सौ सफहात से ज़्यादा ना आते, इस निसाब में उसे डेढ़ साल जै़रे दर्स रखकर ज़्यादा से ज़्यादा अहादीसे करीमा मुताला में लाने की कोशिश की गई है, इसलिए कि हदीसे रसूल इस्लामियात का माखज़े दौम और शारहे कुरआने ह़कीम है।

(4) तसव्वुफ की कोई किताब बाज़ाब्ता दाखिले दर्स ना थी जिससे बड़ी कमी का एहसास होता था, इस निसाब मे

(अ) हुज्जतुल इस्लाम इमामे ग़ज़ाली (450-505 हि.) की मुख़्तसर और जामेअ़ किताब मिनहाजुल आबिदीन शामिल की गई है।

(ब) मिश्कात शरीफ मुकम्मल करना लाज़मी जिसके किताबुर्रिक़ाक़ के मज़ामीन तसव्वुफ और अहलेे तसव्वुफ का माखज हैं और अखलाक-ओ-एहसान का हामिल बनाने में अहादीस करीमा का अपना अहम किरदार है। दिल-ओ-दिमाग़ में कलिमाते रसूल अ़लैहिस्सलातु वस्सलाम की असर आफरीनी का एक खास इमतियाज़ और बुलंद मक़ाम है।

(5) फिक़्ह के दर्स में उ़मूमन किताबुत्तहारत, किताबुस्सलात, किताबुल बुयूअ़, किताबुन्निकाह़, किताबुत्तलाक़ के चंद अबवाब होते थे तमाम फिक़्ही अबवाब बतौरे मतन भी नज़र से ना गुज़रते, इस नुक़्स को दूर करने के लिए नूरूल-ईज़ाह़ से तहारत व इबादत और कुदूरी से बक़्या फिक़्ही अबवाब को शामिल किया गया है, उसूले फिक़्ह की कोई किताब मुकम्मल ना होती थी अब पूरी उसूलुश्शाशी दाखि़ले दर्स है।

(6) आज ये सितम भी हो रहा है कि बहुत से मदारिस में कुछ ऐसे मुदर्रिसीन नज़र आते हैं जो 6 माह में मीज़ान व मुनशइब, नहवमीर और साल भर में इल्मुस्सीग़ा व हिदायतुन्नहव भी मुकम्मल नहीं करते बल्कि उनमें से हर किताब के चंद औराक़ पढ़ा कर ये समझते हैं कि हमने तलबा और इदारे पर बड़ा एहसान कर दिया, जबकि ये खुला हुआ जुल्म है, फिर इंतिजामिआ की जानिब से कोई गिरिफत भी नहीं होती और तलबा को हर साल अगले दर्जे के लिए तरक्क़ी मिल जाती है और वो एक खोखले दरख़्त या पोस्ते बे-मग़्ज़ की सूरत में इदारों से फारिग़ हो जाते हैं। ज़िम्मेदारी का एहसास और खुदा का खौफ कम-ओ-बेश हर जगह से रुखस्त होता जा रहा है। इस निसाब में सर्फ, नह़व, अदब, मन्तिक़, फिक़्ह, बलाग़त, उसूले फिक़्ह, उसूले ह़दीस वगै़रा फुनून की बुनियादी किताबें मुकम्मल तौर पर शामिल की गई हैं क्योंकि इनके बगै़र बासलाहियत मौलवी या आलिम बनाने का तसव्वुर एक दिलचस्प ख़्वाब से ज़्यादा हैसियत नहीं रखता। इंतिज़ामिया और असातिज़ा दोनों की जिम्मेदारी है कि निसाब की तकमील से ग़फलत रवा ना रखें।

(7) फारसी ज़बान भी दाखि़ले निसाब रखी गई है जिसकी दो वजहें हैं, एक ये कि उर्दू में फारसी के बहुत से अल्फाज़ और तराकीब दाखि़ल हैं जिन्हें अच्छी तरह समझने, बोलने और लिखने के लिए फारसी से आशनाई जरूरी है। दूसरी वजह ये है कि बहुत सारा दीनी व इल्मी ज़ख़ीरा फारसी ज़बान में भी है, उस से इस्तिफादे और उस की उक़्दा कुशाई के लिए फारसी में महारत जरूरी है।

अब ज़रा जामिआ सिद्दीक़िया के हालिया निसाब को देखें जो 1427 हि. से राइज है जिसमें मज़कूरा बाला अक्सर उमूर आप जरूर पाएंगे।

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