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नबिरए अल्लामा अ़ाज़मी ह़ज़रत अल्लामा अल्हाज मौलाना फ़ैज़ुलह़क़ अ़ाज़मी

स़दरुलमुदर्रिसीन फ़ैज़ुलउ़लूम मुहम्मद आबाद गोहना लिखते हैं:

मैं मुसलसल तीन साल से देख रहा हूँ कि इस स़ेहरा में ह़ज़रतत पीर सय्यद कुत्बे अ़ामल शाह उ़र्फ़ दादा मियाँ अ़लैहिर्रहमा के मज़ार पुर अन्वार पर दूर दराज़ से इ़शाक़ कुशाँ कुशाँ परवाना वार चले आते हैं,यह मन्ज़र देख कर शेअ़्र याद आता है:

स़बा ने दी मेरे वहशी की क़ब्र पर जारूब पिये त़वाफ़ बगोले को हज़ार बार आए किताबों में अस्लाफ़ के मुतअ़ल्लिक़ जो पढ़ा,यहा आकर देखा,ऐसा महसूस होता है कि हम कई स़दियाँ पहले ज़र्री में पहुँच गये हैं। त़लबा व मुदर्रिसीन को तवाज़ेह का पैकर और निहायत मुन्कसरुल मिज़ाज पाया। बेहम्देही तअ़ाला सोजा शरीफ़ की यह तरबियत गाह इ़ल्मी सीना, इ़ल्म सफ़ीना और दारुलअ़मल तीनों का मजमा है किसी ने उस की मदह़ सराई करते हुये कहा है:

खूशा मस्जिद व मदरसा व ख़ान्क़ाहे कि दरवे बूद क़ील व क़ाल मुहम्मद (स़ल्लल्लाहु तअ़ाला अ़लैहि वसल्लम) सिलसिला अ़ालिया नक़्श बन्दिया से मेरा रूह़ानी राब्त़ा होने की वजह से एक ख़ास़ लज़्ज़ातत से लुत्फ़ अन्दोज़ हुआ। मदारिस के तअ़्ल्लुक़ से मेरा मिज़ाज यह था कि मदारिस को मुअ़ाशिरा से अलग थलक क़ाइम किया जाए और तश्ववुफ की तअ़्लीम व तरबियत का भी ज़ारूर ख़्याल किया जाए। मुझे अपनने इस मिज़ाज का इम्तेयाज़ सोजा शरीफ़ में नज़र आया,बेपनाह मुसर्रत हुई क्योंकि त़लबा व मुदर्रिसीन के अख़्लाक़ व आदाब में तरबियत का पूरा पूरा असर नज़र आया।

19 शअ़्बान 1433 हिजरी की ह़ाज़िरी में लिखा: एक साल के वक़्फ़ा में पूरे दारुल उ़लूम का नक़्शा ही कुछ और हो गया इस स़ेहरा व बयानात में इ़ल्म व इ़रफ़ान का यह चम्निस्तान बिला शुबह ह़ज़रत पीर त़रीक़त अल्लामा अल्हाज अश्शाह सय्यद ग़ाउलाम हुसैन स़ाहब क़िब्ला के फ़ैज़ान इश़्क़ व अख़लास़ और ख़ूस़ूसी तरबियत का जलवा है।

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