हमारे देश भारत के राज्य राजस्थान के पश्चिमी ज़िला बाड़मेर की तहसील सेड़वा का एक छोटा सा गांव सूजा शरीफ़, जो सरकारी रिकार्ड में सूजों का निवाण नाम से दर्ज है यहां लोगों ने आज से एक सो तीस साल पहले 1870 ई.(1927 विक्रम संवत) रहना शुरू किया। उस समय दर्स जाति के लोगों ने मस्जिद और मदरसा का निर्माण करवाया, और उसको हमेशा आबाद रखते आए उनका आध्यात्मिक संबंध मुल्तान शरीफ की महान ख़ानक़ाह हज़रत गौष बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी अलैहिर्रहमह से था जिस के परिणामस्वरूप ये लोग शरीयत और तरीकत (सूफीवाद) दोनों में व्यापक और सर्व सिलसिलों के बुजुर्गों से प्रेम और उन से फैज़ (कृपा) प्राप्त करने वाले रहे हैं।
शैख़े तरीक़त मख़्दूमुल मशाइख मख़्दूम आरिफ शाह कुरैशी असदी हाशमी उस समय गैर मुक़ल्लिदिय्यत की उठती हुई आग को देख कर उन लोगों को लूनी शरीफ के महान बुज़ुर्ग गौषे जमां क़ुत्बुल अक्ताब हज़रत अल्लामा अल्हाज पीर सय्यद अली अकबर शाह जीलानी अलैहिर्रहमह की तरफ रुख किया शरीयत के इल्म के लिए उस्ताज़ुल असातिज़ा जामिउइल्म वल इरफान हज़रत अल्लामा मौलाना मियां हामिदुल्लाह अलैहिर्रहमह बहा शरीफ़ वाले की तरफ आकर्षित किया, इसलिए इस गांव के निवासी मुल्तान शरीफ की खानकाह के साथ साथ लूनी शरीफ से और लूनी शरीफ के सादात के मरकज़े (केंद्र) अक़ीदत मुलाकातियार शरीफ से भी बहुत फैज़याब हुए।
हाजी सालेह मोहम्मद, हाजी मुबीन, हाफिज़ मोहम्मद, वली मोहम्मद अव्वल ऊर्फ नाले चंगा, मोमिन खान, फ़क़ीर अहमद, फ़क़ीर अब्दुल्लाह, खलीफा मोहम्मद, फैज़ मोहम्मद, हाजी सहंयाँ, और मियांजी शैख मोहम्मद, आदि यहां से फैज़ प्राप्त करने वाले रहे हैं। शरीयत के इल्म के बगैर फ़क़ीरी सदेव नहीं रहती, मख़्दूम मोहम्मद आरिफ शाह अलैहिर्रहमह ने मियां साहब अलैहिर्रहमह की तरफ आकर्षित किया जिस के फलस्वरुप मौलाना अब्दुल ह़कीम, हाफिज़ बच्चल, हाफीज़ कायम, मियांजी ईस्माइल, साबू फ़क़ीर, अहमद फ़क़ीर नाले चंगा, कामिल, हाफिज़ मोहम्मद, हाफिज़ हबीब, अली मोहम्मद, आदि बहा शरीफ में पढ़े और अपने गांव में मदरसा कायम रखा, आसपास के तल्बा अपनी इल्मी प्यास को बुझाने के लिए सूजा शरीफ की तरफ रुख करते थे इसलिए नय्यड़, थर, के बहुत से शागिर्दों (शिष्यों) ने हाफिज़ अब्दुल अलीम और हाफिज़ मोहम्मद खान सूजाई से तालीम हासिल की। लूनी शरीफ के बुज़ुर्ग जब भी इस क्षेत्र का दौरा फरमाते तो यहां की मस्जिद में ज़रूर ज़िक्र का हल्का (व्रत उल्लेख) करवाते, ये हल्का ए ज़िक्र का सिलसिला हज़रत पीर सय्यद हाजी अली अकबर शाह जीलानी लुनवी अलैहिर्रहमह से ले कर जामिआ के संस्थापक हज़रत अल्लामा अल्हाज पीर सय्यद बापू ग़ुलाम हुसैन शाह जीलानी मद्दज़िल्लहूल आली तक निरंतर जारी रहा ।और सूजा शरीफ के निवासी ये एक भिन्न ही विशिष्टता रखते हैं कि ये लोग प्रत्येक सिलसिले के बुजुर्गों की अच्छी सेवा और उनका सम्मान करते हैं। शायद इन्हीं नेक गुणों के कारण क़ुत्बे थर हज़रत मुर्शीद पीर सय्यद क़ुत्बे आलम शाह जीलानी अलैहिर्रहमह ने गांव भंवार में विसाल फरमाने के बावुजूद शाश्वत विश्राम के लिए इस मुबारक बस्ती को पसंद फरमाया। वसीयत के अनुसार भंवार से सूजा शरीफ लाकर मज़ार पाक बनाया गया। ये विसाल का वाक्या (घटना) इस गांव के आबाद होने के 92 वर्ष पश्चात 1963 में पेश आया, आज की इन दीन की खिदमात का कारण बना, और मख़्दूम मोहम्मद आरिफ शाह कुरैशी अलैहिर्रहमह की उस बशारत (सुसमाचार) की ताबीर (व्याख्या) सिद्ध हुआ जो गांव के बसने से कुछ वर्ष पश्चात यहां के कब्रिस्तान की नीव रखते हुए मख़्दूम साहब ने गांव वालों को अज़ीम बशारत देते हुए फरमाया था कि यह सूजा शरीफ का कब्रिस्तान जन्नत (स्वर्ग) का एक टुकड़ा है यहां चार यार की चौकी है, इसका मतलब यह था कि जो व्यक्ति इस पवित्र जगह से अपना प्रेम और सद्भावना रखेगा उसके ईमान की सुरक्षा चार यार करेंगे। तत्पश्चात 1963 में हज़रत दादा मियां अलैहिर्रहमह की यहां दरगाह शरीफ बनी उसके छः साल बाद 1969 ई. से आपके फरज़ंद (सुपुत्र) हज़रत अल्लामा अल्हाज पीर सय्यद ग़ुलाम हुसैन शाह जीलानी, बानीए जामिआ सिद्दीक़ीया ने 9 साल की आयु में इस क्षेत्र का दौरा प्रारंभ किया। बानी जामिआ सिद्दीक़ीया अपने वालिद माजिद के उर्स का ज़िम्मा थर के दौरे की शुरूआत में ही 1390 हिजरी सन् में अपने सर ले लिया था जबकि उस से पूर्व गांव के निवासी उर्स किया करते थे 1390 हिजरी सन् से 1402 हिजरी सन् तक निरंतर 12 साल तक अपने वालिद माजिद हज़रत पीर सय्यद क़ुत्बे आलम शाह जीलानी उर्फ दादा मियां अलैहिर्रहमह का मात्र उर्स ही मनाया करते थे। जब लूनी शरीफ से राजस्थान की तरफ आगमन का इरादा होता तो इस क्षेत्र के विशिष्ट लोगों को उर्स का आमंत्रण भेज देते, निर्धारित समय पर आम और खास आपके वालिद माजीद हज़रत पीर सय्यद क़ुत्बे आलम शाह जीलानी के मज़ार पर सूजा शरीफ में इकट्ठा हो जाते और उर्स की नियाज़ पकती रात भर सिंधी मौलूद शरीफ पढ़े जाते फज्र के बाद चादरपोशी होती फिर घंटा भर आपका बयान होता। इस 12 साल की इस अवधि में यहां मदरसा को दारुल उलूम की सूरत देने का विचार अंगड़ाइयां लेता बल्कि अपने बुजुर्गों की उन आशाओं और बशारतों की बिना पर जो उन्होंने पहले ज़ाहिर कर दी थीं उत्तम विश्वाश था कि एक दिन ज़रूर एक अज़ीम गुलिस्ताने मोहम्मदी सूजा शरीफ में लहलाएगा बल्कि हज़रत बानीए जामिआ कभी कभी अपने से सम्बन्ध स्थापित करने वालों को भविष्य में अस्तित्व में आने वाली इस बहार का अभिव्यक्त भी करते।
इसलिए आपने जब देखा के यहां के उल्मा उच्चित प्रबन्ध न होने के कारण दूसरे क्षेत्रों में दीन की सेवा दे रहे हैं उन्हें अपने क्षेत्र की कोई चिन्ता नहीं है अगर किसी को है तो वह अपने में हिम्मत नहीं पाता था कि सूखा क्षेत्र और रेगिस्तान में दीन का पाठ दे सके जबकि उस के विपरित बद अक़ीदा लोग अपने कार्य में तेज़ी दिखा रहे थे और इधर अहले सुन्नत में इस तरह जुमूद (यथास्थिति) इनके उल्मा बाहर और लोग भी गुजरात में मज़दूरी करते नज़र आ रहे थे कुछ भोले भाले यहां के मुसलमान बद अक़ीदा लोगों से अपने बच्चे पढ़ाने लग गए और जो लोग गुजरात नहीं गए बल्कि क्षेत्र में रहे हुए थे उन्हें बद अक़ीदा लोग रूपए, पैसे, देते और उनके बच्चे ले जाकर पढ़ाते यूं अहले सुन्नत का बहुत बड़ा नुक़सान हो रहा था। और दूर रहकर मात्र दौरा और तब्लीग़ के माध्यम से नुक़सान की भरपाई असंभव थी यहां के बच्चे लूनी शरीफ ले जा कर पढ़ाने से उनकी कोशिशों को विफल करना तसल्ली बख़्श नहीं था, क्योंकि इस सूरत में वही बालक बच सकते जो आलिम बनें उनके रिश्तेदारों को बचाना बड़ा कठिन था क्योंकि जो आलिम होता था वह अपने रिश्तेदारों की चिंता करने के स्थान पर दूसरे क्षेत्र में सेट हो रहा था, और इस क्षेत्र में सन्नाटा पसरा हुआ था। अहले सुन्नत के कुछ ही मदरसे थे जिन से शिक्षा ग्रहण की जा सकती थी परन्तु पर्याप्त लाभ के लिए आवश्यकता थी कि राजस्थान में एक ऐसा महान इदारा एक महान विद्यापीठ स्थापित की जाए जिसके माध्यम से पूरे क्षेत्र में अहले सुन्नत का कार्य संपूर्ण और व्यवस्थित हो सके। बड़े पीर साहब सय्यद महमुद शाह क़िब्ला की दिल की तमन्ना थी कि सूजा शरीफ में एक मदरसा स्थापित किया जाए और पीरो मुर्शिद हज़रत शाह मोहम्मद इस्हाक़ उर्फ पागारा बादशाह की हार्दिक तमन्ना यही थी बल्कि उन्होंने किसी साहब से फरमाया सूजा शरीफ में एक बहुत ही बड़ी दर्सगाह विधापीठ देख रहा हूं यही कारण थे जिनके परिणामों ने हज़रत बानीए जामिआ को इस बात पर अग्रसर किया के वालिद साहब के मज़ार शरीफ के निकट एक दारुल उलूम निर्माण किया जाए आपने यहां पर 11 जुमादिल ऊला 1402 सन हिजरी मुताबिक 21 फरवरी 1984 को जुम्मा के दिन दारुल उलूम स्थापित किया जो आज सूजा शरीफ की पावन धरा पर समस्त देशवासियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है जिसकी सेवायें आज हमारे सामने उज्जवल हैं
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कर्मचारी
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